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सत्‍यम

फ़्लैट नम्‍बर 250, एमआईजी,

सेक्‍टर 28, रोहिणी, दिल्‍ली-110085

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1 comment:

  1. शालिनी को हमने पहली बार हज़रतगंज में कॉफी हाउस के पास शाम चार बजे रोजाना लगने वाले 'जनचेतना' के स्टाल पर देखा था। शायद ये सन् 2009 की बात है, जून-जुलाई की। शालिनी बहुत ही सज़गता और तत्परता के साथ स्टाल के पास खड़ी मिलती। वह एक व्यवहार-कुशल लड़की थी। वह अध्ययनशील और विचारधारा के प्रति समर्पित और सक्रिय कॉमरेड थी।हम लोग जनचेतना के दफ्तर में जब भी जाते शालिनी कुछ काम करती नज़र आती। कई बार मैं और इंदु जून की गर्मियों में दोपहर में साहित्यिक पत्रिकाओं और किताबों के लिए जनचेतना के निराला नगर वाले मुख्य दफ्तर में पहुँच जाते। शालिनी हमलोगों के पहुँचते ही शीशे के गिलास में ठंडा पानी लाकर रख देती। कुछ देर के बाद चाय के लिए पूछती। हम लोगों के मना करने पर भी दो प्याली चाय लाकर रख देती। उसके साथ अक्सर विमला से भी मुलाकात होती। कोई साल भर के भीतर ही हम लोग शालिनी और विमला से बेहद आत्मीय होते गए। सन् 2010 की जनवरी-फरवरी में विमला ने ही मेरी कविताओं की पाण्डुलिपि तैयार की। वही बाद में 'अब भी' के नाम से मेरी कविता की पहली किताब 'उद्भावना' प्रकाशन से प्रकाशित हुयी। उसका कवर पेज भी विमला और शालिनी ने तैयार किया था। धीरे-धीरे हम लोग 'जनचेतना' के अन्य साथियों आशीष, लालचंद आदि के संपर्क में आये। हम लोग धीरे-धीरे जनचेतना की गतिविधियों में भी भाग लेने लगे। हमने जनचेतना दफ्तर में आयोजित होने वाली कई वैचारिक संगोष्ठियों में हिस्सा लिया। हमने हमेशा महसूस किया कि जनचेतना से जुड़े युवक और युवतियां न सिर्फ वैचारिक और सक्रिय कम्युनिस्ट कार्यकर्ता हैं बल्कि वे बेहतर इंसान भी हैं। उनकी गोष्ठियों में वैचारिक बहसों के दौरान हमेशा हमने ईमानदारी और सच्चाई देखी। अभी कुछ माह पहले जब मुझे पता चला कि शालिनी कैंसर से पीड़ित है तो हम अवाक रह गये। हमें इस बात का गहरा अफ़सोस है कि हम शालिनी के लिए कुछ खास नहीं कर पाए। अचानक जब 2 या 3 दिन पहले उसकी मौत की दुखद खबर मिली तो हमें सहसा यकीन नहीं हो पाया। हम दिन-भर शोक में डूबे रहे।हमें बराबर ये महसूस होता रहा कि हमसे हमारा कोई अपना छिन गया हो।उसकी स्मृति को हम नमन करते हैं।

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