Saturday 2 February 2013

का. शालिनी : एक क्रान्तिकारी ज़ि‍न्‍दगी का सफ़रनामा

कामरेड शालिनी का राजनीतिक जीवन उनकी किशोरावस्‍था में ही शुरू हो चुका था, जब 1995 में लखनऊ से गोरखपुर जाकर उन्‍होंने एक माह तक चली एक सांस्‍कृतिक कार्यशाला में और फिर 'शहीद मेला' के आयोजन में हिस्सा लिया। इसके बाद वह गोरखपुर में ही युवा महिला कामरेडों के एक कम्‍यून में रहने लगीं। तीन वर्षों तक कम्‍यून में रहने के दौरान शालिनी स्‍त्री मोर्चे पर, सांस्‍कृतिक मोर्चे पर और छात्र मोर्चे पर काम करती रहीं। इसी दौरान उन्‍होंने गोरखपुर विश्‍वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एम.ए. किया। एक पूरावक़्ती क्रान्तिकारी कार्यकर्ता के रूप में काम करने का निर्णय वह 1995 में ही ले चुकी थीं। 

जनचेतना, लखनऊ में एक कार्यक्रम में शालिनी
1998-99 के दौरान शालिनी लखनऊ आकर राहुल फ़ाउण्‍डेशन से मार्क्‍सवादी साहित्‍य के प्रकाशन एवं अन्‍य गतिविधियों में भागीदारी करने लगीं। 1999 से 2001 तक उन्‍होंने गोरखपुर में 'जनचेतना' पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान की ज़ि‍म्‍मेदारी सँभाली। नवम्‍बर 2002 से दिसम्‍बर 2003 तक उन्‍होंने इलाहाबाद में 'जनचेतना' के प्रभारी के रूप में काम किया। 2004 से लेकर अब तक वह लखनऊ स्थित 'जनचेतना' के केन्‍द्रीय कार्यालय और पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान का काम सँभालती रही हैं। इसके साथ ही वह 'परिकल्‍पना', 'राहुल फ़ाउण्‍डेशन' और 'अनुराग ट्रस्‍ट' के प्रकाशन सम्‍बन्‍धी कामों में भी हाथ बँटाती रही हैं। 'अनुराग ट्रस्‍ट' के मुख्‍यालय की गतिविधियों (पुस्‍तकालय, वाचनालय, बाल कार्यशालाएँ आदि) की ज़ि‍म्‍मेदारी उठाने के साथ ही का. शालिनी ने ट्रस्‍ट की वयोवृद्ध मुख्‍य न्‍यासी दिवंगत का. कमला पाण्‍डेय की जिस लगन और लगाव के साथ सेवा और देखभाल की, वह कोई सच्‍चा सेवाभावी कम्‍युनिस्‍ट ही कर सकता था। 2011 में 'अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास' का केन्‍द्रीय पुस्‍तकालय लखनऊ में तैयार करने का जब निर्णय लिया गया तो उसकी व्‍यवस्‍था की भी मुख्‍य ज़ि‍म्‍मेदारी शालिनी ने ही उठायी। 

वह 'जनचेतना' पुस्‍तक प्रतिष्‍ठान की सोसायटी की अध्‍यक्ष, 'अनुराग ट्रस्‍ट' के न्‍यासी मण्‍डल की सदस्‍य, 'राहुल फ़ाउण्‍डेशन' की कार्यकारिणी सदस्‍य और परिकल्‍पना प्रकाशन की निदेशक थीं। ग़ौरतलब है कि इतनी सारी विभागीय ज़ि‍म्‍मेदारियों के साथ ही शालिनी आम राजनीतिक प्रचार और आन्‍दोलनात्‍मक सरगर्मियों में भी यथासम्‍भव हिस्‍सा लेती थीं। 

का. शालिनी एक ऐसी कर्मठ, युवा कम्‍युनिस्‍ट संगठनकर्ता थीं  जिनके पास अठारह वर्षों के कठिन, चढ़ावों-उतारों भरे राजनीतिक जीवन का समृद्ध अनुभव था।  कम्‍युनिज़्म में अडिग आस्‍था के साथ उन्‍होंने एक मज़दूर की तरह खटकर राजनीतिक काम किया। इस दौरान, समरभूमि में बहुतों के पैर उखड़ते रहे। बहुतेरे लोग समझौते करते रहे, पतन के पंककुण्‍ड में लोट लगाने जाते रहे, घोंसले बनाते रहे हैं, दूसरों को भी दुनियादारी का पाठ पढ़ाते रहे या अवसरवादी राजनीति की दुकान चलाते रहे। शालिनी इन सबसे रत्तीभर भी प्रभावित हुए बिना अपनी राह चलती रहीं। एक बार जीवन लक्ष्‍य तय करने के बाद कभी पीछे मुड़कर उन्‍होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। यहाँ तक कि उनके पिता ने भी जब निहित स्‍वार्थ और वर्गीय अहंकार के चलते पतित होकर कुत्‍सा-प्रचार और चरित्र-हनन का मार्ग अपनाया तो उनसे पूर्ण सम्‍बन्‍ध-विच्‍छेद कर लेने में शालिनी ने सेकण्‍ड भर की भी देरी नहीं की। एक सूदख़ोर, व्‍यापारी और भूस्‍वामी परिवार की पृष्‍ठभूमि से आकर, शालिनी ने जिस दृढ़ता के साथ सम्‍पत्ति-सम्‍बन्‍धों से निर्णायक विच्‍छेद किया और जिस निष्‍कपटता के साथ कम्‍युनिस्‍ट जीवन-मूल्‍यों को अपनाया, वह आज जैसे समय में दुर्लभ है और अनुकरणीय भी। 


शालिनी पिछले तीन महीनों से पैंक्रियास के कैंसर से जूझ रही थीं। जनवरी के दूसरे सप्‍ताह में लखनऊ में उन्‍हें कैंसर होने का पता चला। उन्‍हें तत्‍काल दिल्‍ली लाया गया जहां पता चला कि उनका कैंसर चौथी अवस्‍था में है और साथ ही उन्‍हें बोन मेटास्‍टैटिस भी है यानी कैंसर की कोशिकाएं उनकी हड्डियों में फैलने लगी थीं। तभी से दिल्‍ली के धर्मशिला कैंसर अस्‍पताल में उनका इलाज चल रहा था।  गत 29 मार्च को इसी अस्पताल में उनका निधन हो गया। वे केवल 38 वर्ष की थीं।

No comments:

Post a Comment